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भगवान ने सृष्टि की रचना कैसे की ? (HOW WORLD IS CREATED)

 


सृष्टि की रचाना  कैसे हुई इस पर कई सारी धारणाए है। हमने पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार बिग बैंग धारणा के बारे में सुना है अलग अलग पंथ  की अलग अलग धारणाए है ज़्यादातर पंथ यही मानते है की ईश्वर ने रचना की और विज्ञान इसके बिलकुल विपरीत जाता है खैर , दोनों ही विचारधारा की अपनी अपनी सीमाएं है विज्ञान हो सकता है ये साबित करके दिखाए की सृष्टि की रचना ख़ुद हुई पर इसका जवाब  विज्ञान के पास भी नहीं है की मानव में चेतनता किसने भरी या क्यों सृष्टि में मरण और जीवन का अस्तित्व है। पर भारतीय विचारकों ने ये जवाब बिलकुल तार्किक रूप से जाना और समझाया है। 


तो हमारे ऋषि थे बहुत जज्ञासु कोई प्रश्न उत्पन्न  होता तो उसका जवाब  बिना नहीं रहते उसमे ये प्रश्न हुआ की ये सृष्टि की रचना कैसे हुई ? ये मान लेना की ऐसे ही सूर्य, अपनी जगह चंद्र ,अपनी जगह स्थित हो गए तो ये बात बहुत विचित्र सी है इसमें कोई संदेह है की कोई तत्त्व है जिसने इस सृष्टि को जन्म दिया है , जैसे हमें कोई जन्म देने वाला है वैसे ही इस सृष्टि को भी कोई न कोई जन्म देने वाला होगा ही इसी सी कई विचारधारए या विकल्प खोज निकाले  जिस पर आज हम चर्चा करेंगे। 

(१)आरंभवाद -

जैसे कुम्हार ने जैसे मिटटी के बर्तन बनाये , जैसे हमने अपने घर को बनाया वैसे ही ईश्वर ने ही इस दुनिया को बनाया। पर इस विचारधारा में बहुत सी खामियां थी कुम्हार ने मिट्टी के बर्तन बना लिए , हमने घर बना लिया पर हम घर से अलग है घर नहीं और नहीं हमारा घर पे कोई नियंत्रण है, ये तो ऐसा हो गया की ईश्वर के हाथ में सिर्फ बनाने की सत्ता है चलाने की नई। इस वजह से एक दूसरी विचारधारा बनी 

(२)परिणामवाद -

परिणामवाद यानि जैसे दूध मे से दहीं बना जैसे दूध का परिणाम दहीं वैसे ही परमात्मा का परिणाम है ये विश्व। ये विचारधारा है तो आरंभवाद से मान्य पर इसमें भी एक खामी है दूध मे से दही बन गया तो दूध कहा रह गया ? वेदांत का गान है परमात्मा , ईश्वर अपरिवर्तनशील है जो बदल जाये वो भगवान कैसे हो सकते  है ? 

(३)विवर्तवाद-

ये विचारधारा ने सारे प्रश्नो और  के उत्तर भी दिए , इस विचारधारा से तो नास्तिक भी तर्क में हर जाये ! विश्व ईश्वर का विवर्त है विवर्त क्या है ? परमात्मा या परमतत्व कभी नहीं बदलता अज्ञान से लगता है की बदलता है इस विषय को समझने के लिए एक उदाहरण देखते है 

एक अँधेरी जगह जहा पर थोड़ी थोड़ी रोशनी है उस जगह पर तुम एक रस्सी को देखते हो अँधेरे में तुम्हे वो सर्प जैसा लगा। 

अँधेरे के कारण तुम्हे रस्सी सर्प जैसी लगती है।  अँधेरा अज्ञान का सूचक है अज्ञान के कारण भगवान विश्व के रूप में लग ते है एक बार ज्ञान हो जाये जिसे आत्मज्ञान , ब्रह्मज्ञान कहते है तो ये विश्व विश्व नहीं लगता। हम रस्सी से डरने लगते है क्यों की ये समझ दी गई की सर्प है अगर सर्प ही नहीं रहेगा तो डर कहा रहेगा वैसे है अज्ञान है इस लिए पाप-पुण्य , धर्म-अधर्म ,काम , क्रोध,लोभ,मोह है अगर अज्ञान हट जाये तो ये क्या रह जायेगा। 

जब हम सपने देखते है न जाने से कहा से हम एक नायक बन जाते है न जाने कहा से दरिया , रेलवे स्टेशन , बड़ी बिल्डिंग्स , शेर आ जाता है क्यों ? सपने किस में दीखते है ?जैसे हम से सपने दीखते है हम में सपने है वैसे ही भगवान में सृष्टि और सृष्टि में भगवान है , क्या हम सपने हमारी इच्छा से देखते है ? नहीं स्वभाव से ही दीखते है। क्या हम इच्छा करते है की सपने की दुनिया रचे ? नहीं सपने खुद ही बन जाते है।   सपने बने और मिट  ने से हम को क्या ? वैसे ही सृष्टि के बनने और बिगड़ ने से ईश्वर के अस्तित्व को क्या ?

ये विश्व एक महासागर है और इस महा सागर में छोटी,बड़ी,सुन्दर सारी प्रकार कि लहरें है और एक लहर दूसरी लहार से पूछती है '' पानी कहाँ है मे ने तो इस महासागर में बुद्बुदे देखे लहरें देखी पर पानी तो है ही नहीं। ''क्या जवाब दोगे इस अज्ञानी लहर को '' अरे पानी के बिना है क्या बुद्बुदे भी पानी के , लहरे भी पानी की अरे तुम भी पानी के और तुम्हारा ये प्रश्न करना भी पानी में ही है।तुम हे पूछते हो पानी कहा है अरे में तुम्हे कहता हु ठहरो खुद को देखो खुद में डुबकी मारो और मुझे इस प्रश्न का उत्तर तो पानी के बिना और कुछ है क्या ?  ''

इसी तरह का अज्ञान होता है हम चीज़ो का सामान्यकरण कर देते है 

एक महात्मा को एक व्यक्ति ने कहा -'' में ईश्वर में विश्वास नहीं करता , ईश्वर को मानना तो मंदबुद्धि लोको काम है कोई कोई तो मुझे प्रमाण दो ईश्वर के अस्तित्व दो ईश्वर के होने का ?''

महात्मा ने उत्तर दिया -'' तू खुद ईश्वर के होने का प्रमाण है। ''

हमारा सोचना, हमारा बाते  करना , हमारा पढ़ना , और पढ़े हुए और लिखे हुए को समझ पाना  चमत्कार नहीं है ? है पर अब ये तो रोज़ का है इसलिए कुछ नया नहीं लगता। जब हम ध्यान करते है तो सारे  विचार विचार से मुक्त हो जाते है तब ये बात ज़्यादा समझ में आती है तब तो मन का सोचना भी आश्चर्य में डाल देता है। 

खेर हमारी संस्कृति विचारधाराओ के परे है जब शास्रार्थ होता था तब तर्क वितर्क किया जाता था और वेदों के वाक्यों को विचारधाराओ में समजा जाता था आत्मसाक्षात्कार,   या आत्मज्ञान  और भगवान का होना न होना विचारधारा नहीं अनुभव का विषय है। 

मिलते है नए विषय के साथ। 

जय श्री कृष्णा। 


  

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